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नया वर्ष नई मंजिलें

चलें आप सूरज के रथ पर बनें उजाले के प्रतिमान; घर-आँगन खुशियों से भर दे नए वर्ष का स्वर्ण विहान. नए साल में नई मंजिलें कदम आपके चूमें, भाग्य-लक्ष्मी की बाहों में आप खुशी से झूमें. -वीरेन्द्र वत्स

...सुन सको तो सुनो

इश्क का दर्द जाम के किस्से वो ग़ज़ल है गए ज़माने की वत्स आवाज़ आम जनता की, बात उसकी नए ज़माने की  ...                        ...                            ... ये दास्ताने बगावत है सुन सको तो सुनो तुम्हीं से उनकी अदावत है सुन सको तो सुनो सियाह रात में सपने जवां हुए उनके तुम्हें तो जश्न की आदत है सुन सको तो सुनो जला है गाँव जले साथ अनछुए अरमां पता है किसकी शरारत है सुन सको तो सुनो लुटे-पिटे हैं मगर हौसले उबलते हैं दिलों में आग सलामत है सुन सको तो सुनो ये बाढ़ खुद ही नए रास्ते बना लेगी तुम्हारे सर पे कयामत है सुन सको तो सुनो मनाओ खैर अभी और कुछ नहीं बिगड़ा उठा लो जो भी शिकायत है सुन सको तो सुनो -वीरेन्द्र वत्स (युग तेवर में प्रकाशित)

...इश्क साया है आदमी के लिए

दिल लगाना न दिल्लगी के लिए, ये इबादत है ज़िन्दगी के लिए. इश्क दाना है, इश्क पानी है, इश्क साया है आदमी के लिए. ये किसी एक का नहीं यारो, ये इनायत है हर किसी के लिए. मेरा हर लफ्ज़ है अमन के लिए, मेरी हर साँस बंदगी के लिए, मैं हवा के खिलाफ चलता हूँ, सिर्फ इंसान की खुशी के लिए. वीरेन्द्र वत्स

अथ श्री राजा- रानी कथा

भौतिक सुख-सुविधाएँ जुटाने और भोगने की आपाधापी में मानवीय रिश्ते पीछे छूटते जा रहे हैं. एक-दूसरे पर शक गहरा हो चला है और दाम्पत्य बंधन भी आहत हो रहे हैं. इसी सच्चाई से परदा उठाती है यह कविता- राजा के घर चौका-बर्तन करती फूलकुमारी, छह सौ की तनख्वाह महीना, बची-खुची त्योहारी. फुर्तीली हिरनौटी जैसी पल भर में आ जाती, हँसते-गाते राजमहल के सभी काम निबटाती. श्रम का तेज पसीना बनकर तन से छलक रहा है, हर उभार यौवन का झीने पट से झलक रहा है. बीच-बीच में राजा से बख्शीश आदि पा जाती, जोड़-तोड़कर जैसे-तैसे घर का खर्च चलाती. बूढा बाप दमा का मारा खाँस रहा है घर में, घर क्या है खोता चिड़िया का बदल गया छप्पर में. रानी जगमग ज्योति-पुंज सी अपना रूप सँवारे, चले गगन में और धरा पर कभी न पाँव उतारे. नारीवादी कार्यक्रमों में यदा-कदा जाती है, जोशीले भाषण देकर सम्मान खूब पाती है. सोना-चाँदी हीरा-मोती साड़ी भव्य-सजीली, रंग और रोगन से जी भर सजती रंग-रँगीली. यह सिंगार भी राजा की आँखों को बाँध न पाता, मन का चोर मुआ निष्ठा को यहाँ-वहाँ भरमाता. राजा ने जब फूलकुमारी की तनख्वाह बढ़ाई, मालिक की करतू

वो लाख झूठ कहें उनका एतबार करें

हम उनसे प्यार करें उनका इंतज़ार करें, मगर वो जब भी मिलें हमको बेकरार करें. समझ सके न उन्हें दोस्त हैं कि दुश्मन हैं, चला के तीरे-नज़र दिल के आर-पार करें. ये इश्क है कि नए दौर की सियासत है, गले लगा के हमें वो जिगर पे वार करें. अजीब शर्त यहाँ आशिकी निभाने की- वो लाख झूठ कहें उनका एतबार करें. हमें भी फूल चढायेंगे उनका वादा है, अगर हम उनके लिए जिस्मो-जाँ निसार करें. वीरेन्द्र वत्स

कौन है वह?

चतुर-चंचल चाँदनी से पूछ अपनी राह पवन पागल आज आधी रात ढूंढता सा है किसी को वारि में वन में पुलिन पर व्योम में भी कौन है वह कर रहा चुपचाप प्रिय से घात??? (हिन्दुस्तान में प्रकाशित) वीरेन्द्र वत्स

रोटी और बारूद

हथियारों की होड़ आज जा पहुँची है अम्बर में, महानाश का धूम उमड़ता दुनिया के घर-घर में. खरबों की संपत्ति शत्रुता पर स्वाहा होती है, मानवता असहाय बेड़ियों में जकड़ी रोती है. चंद सिरफिरों की करनी पूरी पीढ़ी भरती है, कीड़ों सा जीवन जीती है कुत्तों सी मरती है. युद्ध समस्या स्वयं समस्या इससे क्या सुलझेगी, रोटी की मारी जनता बारूदों में उलझेगी. अणु के घातक अस्त्र जुटाए किस पर बरसाने को? चील-गिद्ध भी नहीं बचेंगे तेरा शव खाने को!!! (युग तेवर में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

...समझो अपनी ताक़त भाई!!!

लोकतंत्र में असली शक्ति जनता में होती है. लेकिन नेता व अफसर इस शक्ति का अपहरण कर ऐश करते हैं और जनता मुसीबतों में फंसी कराहती रहती है. जनता अगर अपनी शक्ति पहचान ले तो स्थितियां बदल सकती हैं. सब राजा हैं एक समान, सबकी है तोते में जान. तोता कुछ भी समझ न पाता, बिहग योनि पाकर पछताता. खेल-खेल में बटन दबाता, राज मिटाता राज बनाता. राजा ने इसको भरमाया, त्याग-तोष का पाठ पढ़ाया. तोता बना तभी से जोगी, राज चलाते टुच्चे-ढोंगी. चलो हकीक़त इसे बताएं, चलो नींद से इसे जगाएं. उठो-उठो अब जागो-जागो, खुला द्वार पिंजरे से भागो. किसने तुमको भांग पिलाई? समझो अपनी ताक़त भाई!!! (युग तेवर में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स 

ज़ंग करते हुए नगमात...

ये उबलते हुए जज्बात कहाँ ले जाएँ ज़ंग करते हुए नगमात कहाँ ले जाएँ रोज़ आते हैं नए सब्जबाग आंखों में ये सियासत के तिलिस्मात कहाँ ले जाएँ अमीर मुल्क की मुफलिस जमात से पूछो उसके हिस्से की घनी रात कहाँ ले जाएँ हम गुनहगार हैं हमने तुम्हें चुना रहबर अब जमाने के सवालात कहाँ ले जाएँ सारी दुनिया के लिए मांग लें दुआ लेकिन घर के उलझे हुए हालात कहाँ ले जाएँ ( युग तेवर में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

...नए रास्ते निकलते हैं

कड़ी हो धूप तो खिल जायें गुलमोहर की तरह सियाह रात में घुल जायें हम सहर की तरह जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं न घर में बैठिए बेकार-बेखबर की तरह वो रास्ता ही सही मायने में मंजिल है जहाँ रकीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह ( दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

अब उन्हें इस ज़मीन पर लाओ...

लोग यूं बेजबान होते हैं दर्द पीकर जवान होते हैं क्यूं सुलगती सुबह की आँखों में बेबसी के निशान होते हैं हैं ये बेजान नींव की ईंटें हाँ इन्हीं से मकान होते हैं ये दिखाती हैं खिसकने का हुनर जब कभी इम्तिहान होते हैं चाँद-तारों की बात मत छेडो वो खयालों की शान होते हैं अब उन्हें इस जमीन पर लाओ जो सरे आसमान होते हैं ( युग तेवर में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

...दोस्त हर रिश्ते में थोड़ा फासला रखिये

कौन अपना है किसी से क्यों गिला रखिये, खुद तलक पाबन्द अपना फैसला रखिये. लोग सुनकर मुस्करायेंगे, खिसक लेंगे, कैद सीने में ग़मों का ज़लज़ला रखिये. आप दिल से काम लेते हैं, कयामत है, ज़ख्मो-जिल्लत झेलने का हौसला रखिये. टूटना फिर बिखर जाना नियति है इसकी, किसलिए जारी वफ़ा का सिलसिला रखिये. यूं न मिलिए प्यास मिलने की फ़ना हो जाय, दोस्त हर रिश्ते में थोड़ा फासला रखिये. (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

सोने की चिड़िया निगल गया हा! कौन बाज?

जिसका गर्वोन्नत शीश युगों तक था भू पर, लहराई जिसकी कीर्ति सितारों को छूकर, जिसके वैभव का गान सृष्टि की लय में था, जिसकी विभूतियां देख विश्व विस्मय में था, वह देश वही भारत उसको क्या हुआ आज? सोने की चिड़िया निगल गया हा! कौन बाज? जिसके दर्शन की प्यास लिये पश्चिम वाले, आये गिरि-गह्वर-सिन्धु लाँघ कर मतवाले. तब कहा गर्व से सपनों का गुलजार इसे, अब वही मानते सीवर बदबूदार इसे. कारण क्या? सोचो अरे राष्ट्र के कर्णधार? संसद से बाहर भी भारत का है प्रसार! यह देश दीन-दुर्बल मजदूर किसानों का. भिखमंगों-नंगों का, बहरों का-कानों का. जब-जब जागा इनमें सुषुप्त जनमत अपार, आ गया क्रांति का-परिवर्तन का महाज्वार. ढह गए राज प्रासाद, बहा शोषक समाज. मिट गयी दानवों की माया आया सुराज. ये नहीं चाहते तोड़फोड़ या रक्तपात, ये नहीं चाहते प्रतिहिंसा-प्रतिशोध-घात. पर तुम ही इनको सदा छेड़ते आये हो. इनके धीरज के साथ खेलते आये हो. इनकी हड्डी पर राजभवन की दीवारें, कब तक जोड़ेंगी और तुम्हारी सरकारें? रोको भवनों का भार-नींव की गरमाहट, देती है ज्वालामुखी फूटने की आहट!!! ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रका

चांदनी संवरती है...

रेशमी घटाओं में चाँद मुस्कराता है नर्म-नर्म ख्वाबों को नींद से जगाता है थोड़ी-थोड़ी मदहोशी थोड़ी-थोड़ी बेताबी हाँ यही मोहब्बत है ये समां बताता है चांदनी संवरती है आसमां के आँगन में सर्द झील का पानी आईना दिखाता है मनचली हवाओं से पूछता है सन्नाटा कौन आज जंगल में बांसुरी बजाता है शोख़ रातरानी यूं झूमती है शाखों में जैसे कोई दिलवर को बांह में झुलाता है यूं मना रहा कोई आसमां में दीवाली इक दिया बुझाता है सौ दिए जलाता है ( हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित ) -वीरेंद्र वत्स

...मौसम की शरारत है

कातिल की हुकूमत है कातिल की अदालत है फरियाद करें किससे हर ओर क़यामत है आकाश के पिंजरे में बाँधा है परिंदों को कहने को अभी इनकी परवाज की हालत है बादल भी बरसते हैं सूरज भी दहकता है बारिश तो नहीं है ये मौसम की शरारत है एहसान रकीबों का रिश्ता तो निभाते हैं चाहत से भली यारो दुश्मन की अदावत है बसता है उजड़ता है, जुड़ता है बिखरता है एहसास मेरे दिल का लोगों की तिजारत है (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

...हर लहर किनारा है

दिल जरा संभल जाओ वक़्त का इशारा है आशिकी का मौसम है इश्क का नज़ारा है भीनी-भीनी खामोशी, मीठी-मीठी तन्हाई बज्म में जिसे देखो बेखुदी का मारा है हुस्न की नुमाइश है इसलिए सितारों ने बेलिबास चंदा को झील में उतारा है फैसला करें कैसे कौन किसपे भारी है वो जिसे मोहब्बत ने दर्द से निखारा है जिस हसीन लम्हे का इंतज़ार था हमको आज वो हसीं लम्हा खुद ब खुद हमारा है क्या हुआ अगर हमको तैरना नहीं आता प्यार के समंदर में हर लहर किनारा है (हिन्दुस्तान में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

खुद पे इतना भी एतबार नहीं...

आप कुछ यूं उदास होते हैं रेत में कश्तियाँ डुबोते हैं खुद पे इतना भी एतबार नहीं गैर की गलतियाँ संजोते हैं लोग क्यूं आरजू में जन्नत की जिंदगी का सुकून खोते हैं जब से मज़हब में आ गए कांटे हम मोहब्बत के फूल बोते हैं बज्म के कहकहे बताते हैं आप तन्हाइयों में रोते हैं (युग तेवर में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

अब नहीं और...

दिल का हर दर्द भला कैसे संभाला जाये अब नहीं और ये उम्मीद पे टाला जाये अब तो हर रात चरागों से धुआं उठता है सर्द बेजार धुआं लौ में न ढाला जाये सुर्ख नज़रों का बयां इनकी जबानी सुनिए इनका हर हाल न लफ्जों में निकाला जाये खून इंसान का पीकर जो इश्क जिन्दा है ऐसे शैतान को किस गाँव में पाला जाये अब तो हर साल नहीं, रोज़ जलाकर होली इश्क का मारा हुआ आग में डाला जाये  (युग तेवर में प्रकाशित)  -वीरेन्द्र वत्स

...एतबार कौन करे

सुबह से शाम तलक इंतज़ार कौन करे तुम्हारे वादे पे अब एतबार कौन करे सियासी रंग में ढलने लगी मोहब्बत भी फिर ऐसी शै पे दिलो-जाँ निसार कौन करे जिसे तलाश हमारी उसे तलाश करें बड़ों के साथ बड़ा कारबार कौन करे सजा किये की अभी तक भुगत रहे हैं हम पुरानी भूल भला बार-बार कौन करे वो रहनुमा है उसे हक है जालसाजी का जो जल रहे हैं उन्हें शर्मसार कौन करे (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

आप बस आप...

आप बस आप खबर आपकी हजारों को आपने दी है जबां बेजबां नज़ारों को शोख परदे में कभी और कभी बेपरदा कौन समझाए हमें इन जवां इशारों को आपके गाँव में जलते हैं सभी इन्सां से हाँ सजाते हैं दिलो-जान से मजारों को बेवजह गैर से इन्साफ किसलिए मांगें जबकि उठना है जहाँ से वफ़ा के मारों को चमन में आज भड़कते हैं हर तरफ शोले क्या बचायेगा कोई आग से बहारों को (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

कोई तो बात उठे...

रुला- रुला के गए दोस्त हँसाने वाले लगा के आग गए आग बुझाने वाले थी आरजू कि कभी हम भी पार उतरेंगे डुबो के नाव गए पार लगाने वाले खुलेगा राज भला किस तरह से कातिल का पड़े सुकूं से सभी जान गंवाने वाले कोई तो बात उठे दूर तलक जो जाए यहाँ जमा हैं फ़क़त शोर मचाने वाले (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

महादेवी वर्मा से वीरेंद्र वत्स की ख़ास बातचीत (धरोहर)

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  महादेवी वर्मा के साथ नेपाल के कवि गुलाब खेतान और वीरेन्द्र वत्स (दाहिने)                                             महादेवी वर्मा का यह इंटरव्‍यू मैंने उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों में लिया था.यह गुरुवार 27 अगस्‍त सौर 11 भाद्रपद 2044 को दैनिक 'आज' के  साप्ताहिक परिशिष्ट ‘मध्‍यान्‍तरी’ में प्रकाशित हुआ। इस महान विचार-दर्शन को ऐतिहासिक दस्‍तावेज मानते हुए इसे बिना किसी काट-छांट के प्रस्तुत कर रहा हूँ. महादेवी वर्मा का जीवन ममत्‍व एवं करुणा का असीम अगाध समुद्र है। हिंदी साहित्‍य के उत्‍कर्ष का युग उनमें पुंजीभूत है। उनका काव्‍य साध्‍य के प्रति साधक की अंतर्वृत्तियों का अनुभूतिपरक प्राणवान चित्र है। परमात्‍मा उनके रचना धर्म का केन्‍द्रीय तत्‍व है। यह आध्‍यात्मिक दृष्टिकोण उनकी लय-भाव बिम्बित मनोरम वाणी के अनुकूल है। परमतत्‍व विश्‍व के परे होकर भी विश्‍व के कण कण में व्‍याप्‍त है। संसार के लिए समर्पित प्रेमभाव उसके लिए है और उसके प्रति अभिव्‍यक्‍त आसक्ति विश्‍व के लिए। कवयित्री के लिए उसका काव्‍य परमसत्‍ता के प्रति पावन प्रणय निवेदन है। यह जीवात्‍मा का परमात्‍मा के लिए

ये क्या दयार ...

इस ग़ज़ल का एक खास मकसद है। विकास की अंधी दौड़ में आदमी हवा, पानी और मिट्टी को लगातार प्रदूषित कर रहा है। यही हालत रही तो आने वाले ५० सालों में यह धरती रहने लायक नहीं रह जायेगी। भलाई इसी में है कि हम समय रहते चेत जाएँ. ये क्या दयार जहाँ फूल है न खुशबू है कदम-कदम पे फ़कत पत्थरों का जादू है भरा है काला धुआं आसमान की हद तक अजीब खौफे क़यामत जहाँ में हर सू है ये आदमी की तरक्की की इंतिहा तो नहीं जमीं बदलने लगी बार-बार पहलू है हम तुम्हारे हैं गुनहगार ऐ नई नस्लो नहीं जुनूने तबाही पे ख़ुद का काबू है ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) वीरेंद्र वत्स

अपनी बात

समय इतनी तीव्र गति से बदल रहा है की जरा सा चूकने का मतलब है पिछड़ जाना। ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने घर में सिमट कर सिर्फ़ कविता लिखते रहें और बाहरी दुनिया से कोई वास्ता न रखें। दुनिया से जुड़ना है तो यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया चाहती क्या है। हमें अपने लेखन और दुनिया की अपेक्षाओं में समन्वय कायम करना होगा। हम लोगों पर सिर्फ़ अपने विचार थोप कर ज्यादा दूर तक नहीं चल सकते। व्यवस्था इतनी विराट हो गई है कि इससे बाहर रहकर इसे बदलना असंभव है। व्यवस्था के भीतर घुस कर ही इसमें बदलाव के उपाय करने होंगे। आज कविता के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि वह जनमानस से कट गई है। विविध आन्दोलनों कि आंधी में कविता उस मकाम पर पहुँच गई है जहाँ उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में चुटकुलेबाजों और गवैयों कि बन आई है. कविता के महारथी अपने आन्दोलन पर आत्ममुग्ध हैं. चुटकुलेबाज-गवैये दुनिया के सामने कवि विरादरी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. लोकप्रियता को सिर-आँखों पर बिठाने वाले अतिसक्रिय मीडिया के इस युग में वास्तविक कविता को नए सिरे से लोकप्रिय बनाना एक बड़ी चुनौती है. कवियों, साहित्यकारों व समीक्षकों को आत

तुझे लोग गुनगुनाएँगे

किसी किताब में सिमटी हुई ग़ज़ल की तरह न घर में बैठ तुझे लोग गुनगुनाएँगे तू इन्कलाब है किस्मत संवार सकती है ये जंगबाज तेरी पालकी उठाएंगे ये तेरी उम्र, तेरा जोश, ये तेरे तेवर बुझे दिलों में नया जलजला जगाएंगे फटी जमीन तो शोले उठेंगे सागर से कहाँ तलक वो तेरा हौसला दबायेंगे झुका-झुका के कमर तोड़ दी गई जिनकी वो आज मिलके ज़माने का सर झुकायेंगे ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) -वीरेंद्र वत्स

...वहां प्यार की बस्ती थी

जहाँ राख का ढेर लगा है वहां प्यार की बस्ती थी यहाँ बसी थी खुशी ईद की, यहाँ फाग की मस्ती थी सबके घर में अमन-चैन था, सबके थे परिवार सुखी सबके अपने तौर-तरीके, सबकी अपनी हस्ती थी नफरत भरी पड़ी एक दिन ज्वाला बनकर टूट पड़ी इंसानों की जान चुनावी राजनीति से सस्ती थी अपनी सत्ता अपनी कुर्सी अपने रुतबे की खातिर वोटर को ही मार दिया, यह कैसी वोटपरस्ती थी अबकी गाँव गया तो मैंने यह अजीब मंज़र देखा नेता जीता मगर वोटरों की आंखों में पस्ती थी कितने कुनबे और जलेंगे, कितने सपने होंगे खाक यही गिनाने को शायद चैनल की आँख तरसती थी ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

वीरेन्द्र वत्स के दोहे

झूठे झगड़े छोड़कर, चलो बढाएं ज्ञान। मुसलमान गीता पढ़े, हिन्दू पढ़े कुरान॥ इतना प्यारा देश है इतने प्यारे लोग। इसे कहाँ से लग गया बँटवारे का रोग॥ जाति-धर्म भाषा-दिशा प्रांतवाद की मार। टुकड़ा-टुकड़ा देश है, कौन लगाये पार॥ कोई भूखा मर रहा कोई काटे माल। लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल॥ अरबों के मालिक हुए कल तक थे दरवेश। नेता दोनों हाथ से लूट रहे हैं देश॥ बारी-बारी लुट रही जनता है मजबूर। नेता हैं गोरी यहाँ, नेता हैं तैमूर॥ पटा लिया परधान को, दिए करारे नोट। पन्नी बांटी गाँव में पलट गए सब वोट॥ ( युग तेवर में प्रकाशित )