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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

...समझो अपनी ताक़त भाई!!!

लोकतंत्र में असली शक्ति जनता में होती है. लेकिन नेता व अफसर इस शक्ति का अपहरण कर ऐश करते हैं और जनता मुसीबतों में फंसी कराहती रहती है. जनता अगर अपनी शक्ति पहचान ले तो स्थितियां बदल सकती हैं. सब राजा हैं एक समान, सबकी है तोते में जान. तोता कुछ भी समझ न पाता, बिहग योनि पाकर पछताता. खेल-खेल में बटन दबाता, राज मिटाता राज बनाता. राजा ने इसको भरमाया, त्याग-तोष का पाठ पढ़ाया. तोता बना तभी से जोगी, राज चलाते टुच्चे-ढोंगी. चलो हकीक़त इसे बताएं, चलो नींद से इसे जगाएं. उठो-उठो अब जागो-जागो, खुला द्वार पिंजरे से भागो. किसने तुमको भांग पिलाई? समझो अपनी ताक़त भाई!!! (युग तेवर में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स 

ज़ंग करते हुए नगमात...

ये उबलते हुए जज्बात कहाँ ले जाएँ ज़ंग करते हुए नगमात कहाँ ले जाएँ रोज़ आते हैं नए सब्जबाग आंखों में ये सियासत के तिलिस्मात कहाँ ले जाएँ अमीर मुल्क की मुफलिस जमात से पूछो उसके हिस्से की घनी रात कहाँ ले जाएँ हम गुनहगार हैं हमने तुम्हें चुना रहबर अब जमाने के सवालात कहाँ ले जाएँ सारी दुनिया के लिए मांग लें दुआ लेकिन घर के उलझे हुए हालात कहाँ ले जाएँ ( युग तेवर में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

...नए रास्ते निकलते हैं

कड़ी हो धूप तो खिल जायें गुलमोहर की तरह सियाह रात में घुल जायें हम सहर की तरह जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं न घर में बैठिए बेकार-बेखबर की तरह वो रास्ता ही सही मायने में मंजिल है जहाँ रकीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह ( दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

अब उन्हें इस ज़मीन पर लाओ...

लोग यूं बेजबान होते हैं दर्द पीकर जवान होते हैं क्यूं सुलगती सुबह की आँखों में बेबसी के निशान होते हैं हैं ये बेजान नींव की ईंटें हाँ इन्हीं से मकान होते हैं ये दिखाती हैं खिसकने का हुनर जब कभी इम्तिहान होते हैं चाँद-तारों की बात मत छेडो वो खयालों की शान होते हैं अब उन्हें इस जमीन पर लाओ जो सरे आसमान होते हैं ( युग तेवर में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

...दोस्त हर रिश्ते में थोड़ा फासला रखिये

कौन अपना है किसी से क्यों गिला रखिये, खुद तलक पाबन्द अपना फैसला रखिये. लोग सुनकर मुस्करायेंगे, खिसक लेंगे, कैद सीने में ग़मों का ज़लज़ला रखिये. आप दिल से काम लेते हैं, कयामत है, ज़ख्मो-जिल्लत झेलने का हौसला रखिये. टूटना फिर बिखर जाना नियति है इसकी, किसलिए जारी वफ़ा का सिलसिला रखिये. यूं न मिलिए प्यास मिलने की फ़ना हो जाय, दोस्त हर रिश्ते में थोड़ा फासला रखिये. (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

सोने की चिड़िया निगल गया हा! कौन बाज?

जिसका गर्वोन्नत शीश युगों तक था भू पर, लहराई जिसकी कीर्ति सितारों को छूकर, जिसके वैभव का गान सृष्टि की लय में था, जिसकी विभूतियां देख विश्व विस्मय में था, वह देश वही भारत उसको क्या हुआ आज? सोने की चिड़िया निगल गया हा! कौन बाज? जिसके दर्शन की प्यास लिये पश्चिम वाले, आये गिरि-गह्वर-सिन्धु लाँघ कर मतवाले. तब कहा गर्व से सपनों का गुलजार इसे, अब वही मानते सीवर बदबूदार इसे. कारण क्या? सोचो अरे राष्ट्र के कर्णधार? संसद से बाहर भी भारत का है प्रसार! यह देश दीन-दुर्बल मजदूर किसानों का. भिखमंगों-नंगों का, बहरों का-कानों का. जब-जब जागा इनमें सुषुप्त जनमत अपार, आ गया क्रांति का-परिवर्तन का महाज्वार. ढह गए राज प्रासाद, बहा शोषक समाज. मिट गयी दानवों की माया आया सुराज. ये नहीं चाहते तोड़फोड़ या रक्तपात, ये नहीं चाहते प्रतिहिंसा-प्रतिशोध-घात. पर तुम ही इनको सदा छेड़ते आये हो. इनके धीरज के साथ खेलते आये हो. इनकी हड्डी पर राजभवन की दीवारें, कब तक जोड़ेंगी और तुम्हारी सरकारें? रोको भवनों का भार-नींव की गरमाहट, देती है ज्वालामुखी फूटने की आहट!!! ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रका

चांदनी संवरती है...

रेशमी घटाओं में चाँद मुस्कराता है नर्म-नर्म ख्वाबों को नींद से जगाता है थोड़ी-थोड़ी मदहोशी थोड़ी-थोड़ी बेताबी हाँ यही मोहब्बत है ये समां बताता है चांदनी संवरती है आसमां के आँगन में सर्द झील का पानी आईना दिखाता है मनचली हवाओं से पूछता है सन्नाटा कौन आज जंगल में बांसुरी बजाता है शोख़ रातरानी यूं झूमती है शाखों में जैसे कोई दिलवर को बांह में झुलाता है यूं मना रहा कोई आसमां में दीवाली इक दिया बुझाता है सौ दिए जलाता है ( हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित ) -वीरेंद्र वत्स

...मौसम की शरारत है

कातिल की हुकूमत है कातिल की अदालत है फरियाद करें किससे हर ओर क़यामत है आकाश के पिंजरे में बाँधा है परिंदों को कहने को अभी इनकी परवाज की हालत है बादल भी बरसते हैं सूरज भी दहकता है बारिश तो नहीं है ये मौसम की शरारत है एहसान रकीबों का रिश्ता तो निभाते हैं चाहत से भली यारो दुश्मन की अदावत है बसता है उजड़ता है, जुड़ता है बिखरता है एहसास मेरे दिल का लोगों की तिजारत है (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

...हर लहर किनारा है

दिल जरा संभल जाओ वक़्त का इशारा है आशिकी का मौसम है इश्क का नज़ारा है भीनी-भीनी खामोशी, मीठी-मीठी तन्हाई बज्म में जिसे देखो बेखुदी का मारा है हुस्न की नुमाइश है इसलिए सितारों ने बेलिबास चंदा को झील में उतारा है फैसला करें कैसे कौन किसपे भारी है वो जिसे मोहब्बत ने दर्द से निखारा है जिस हसीन लम्हे का इंतज़ार था हमको आज वो हसीं लम्हा खुद ब खुद हमारा है क्या हुआ अगर हमको तैरना नहीं आता प्यार के समंदर में हर लहर किनारा है (हिन्दुस्तान में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

खुद पे इतना भी एतबार नहीं...

आप कुछ यूं उदास होते हैं रेत में कश्तियाँ डुबोते हैं खुद पे इतना भी एतबार नहीं गैर की गलतियाँ संजोते हैं लोग क्यूं आरजू में जन्नत की जिंदगी का सुकून खोते हैं जब से मज़हब में आ गए कांटे हम मोहब्बत के फूल बोते हैं बज्म के कहकहे बताते हैं आप तन्हाइयों में रोते हैं (युग तेवर में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

अब नहीं और...

दिल का हर दर्द भला कैसे संभाला जाये अब नहीं और ये उम्मीद पे टाला जाये अब तो हर रात चरागों से धुआं उठता है सर्द बेजार धुआं लौ में न ढाला जाये सुर्ख नज़रों का बयां इनकी जबानी सुनिए इनका हर हाल न लफ्जों में निकाला जाये खून इंसान का पीकर जो इश्क जिन्दा है ऐसे शैतान को किस गाँव में पाला जाये अब तो हर साल नहीं, रोज़ जलाकर होली इश्क का मारा हुआ आग में डाला जाये  (युग तेवर में प्रकाशित)  -वीरेन्द्र वत्स