अपनी बात
समय इतनी तीव्र गति से बदल रहा है की जरा सा चूकने का मतलब है पिछड़ जाना। ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने घर में सिमट कर सिर्फ़ कविता लिखते रहें और बाहरी दुनिया से कोई वास्ता न रखें। दुनिया से जुड़ना है तो यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया चाहती क्या है। हमें अपने लेखन और दुनिया की अपेक्षाओं में समन्वय कायम करना होगा। हम लोगों पर सिर्फ़ अपने विचार थोप कर ज्यादा दूर तक नहीं चल सकते। व्यवस्था इतनी विराट हो गई है कि इससे बाहर रहकर इसे बदलना असंभव है। व्यवस्था के भीतर घुस कर ही इसमें बदलाव के उपाय करने होंगे। आज कविता के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि वह जनमानस से कट गई है। विविध आन्दोलनों कि आंधी में कविता उस मकाम पर पहुँच गई है जहाँ उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में चुटकुलेबाजों और गवैयों कि बन आई है. कविता के महारथी अपने आन्दोलन पर आत्ममुग्ध हैं. चुटकुलेबाज-गवैये दुनिया के सामने कवि विरादरी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. लोकप्रियता को सिर-आँखों पर बिठाने वाले अतिसक्रिय मीडिया के इस युग में वास्तविक कविता को नए सिरे से लोकप्रिय बनाना एक बड़ी चुनौती है. कवियों, साहित्यकारों व समीक्षकों को आत्ममंथन करना होगा, अपनी सोच बदलनी होगी और एक रणनीति बनाकर काम करना होगा. अगर कविता का कोई आन्दोलन चलाना ही है तो सबसे पहले इसे लोकप्रिय बनाने का आन्दोलन चलाया जाए।
अब बात ग़ज़ल की।
ग़ज़ल भारतीय उपमहाद्वीप और इससे परे भी काव्य का एक अहम हिस्सा बन चुकी है. यह दिलों में आसानी से पैठ बना लेती है और जनजीवन पर गहरा असर डालती है. ग़ज़ल अपने शाब्दिक अर्थ (प्रेमी-प्रेमिका संवाद) की सीमाएँ कब का तोड़ चुकी है. अब यह आमजन के दुःख-दर्द, रोजी-रोटी तथा अधिकारों की बात करती है, उनके हक पर कुंडली मारकर बैठे शोषकों को ललकारती है और भ्रष्ट व घूसखोर नेताओं-अफसरों को आईना दिखाती है. ग़ज़ल ने जब से आमजन की ज़ंग को नई धार देना सीखा है, यह महफ़िल से चौपाल तक और सड़क से संसद तक छा गई है. यह गाँव की धूल में फल-फूल रही है, सिनेमा के परदे पर अदाएं दिखा रही है और साहित्यिक सम्मेलनों में अपना डंका बजा रही है. ग़ज़ल की यह ताक़त मैंने भी महसूस की है. गाँव से लेकर शहर तक जो कुछ देखा और भोगा है, उसे ग़ज़ल के जरिये बयान करने का प्रयास किया है. मैं एक सामान्य किसान परिवार से जुड़ा हूँ इसलिए हर वह पीडा झेली है, जिससे इस देश का आम आदमी गुजर रहा है. जीवन के इस महायुद्ध में परिस्थितियों का हर प्रहार मुझसे पहले मेरी अर्धांगिनी गीता ने झेला. यदि वह साथ न होतीं तो मैं चूर-चूर हो गया होता. आमजन की अपार पीडा को अगर मैं कुछ शब्द दे सका तो अपना प्रयास सार्थक समझूंगा. एक बात और। मेरी अधिकतर रचनाएँ हिंदुस्तान दैनिक और युग तेवर में प्रकाशित हो चुकी हैं लेकिन मैं मानता हूँ कि यह ब्लॉग इन्हें सुधी पाठकों तक पहुंचाने का सर्वश्रेष्ठ मंच है।
-वीरेंद्र वत्स
अब बात ग़ज़ल की।
ग़ज़ल भारतीय उपमहाद्वीप और इससे परे भी काव्य का एक अहम हिस्सा बन चुकी है. यह दिलों में आसानी से पैठ बना लेती है और जनजीवन पर गहरा असर डालती है. ग़ज़ल अपने शाब्दिक अर्थ (प्रेमी-प्रेमिका संवाद) की सीमाएँ कब का तोड़ चुकी है. अब यह आमजन के दुःख-दर्द, रोजी-रोटी तथा अधिकारों की बात करती है, उनके हक पर कुंडली मारकर बैठे शोषकों को ललकारती है और भ्रष्ट व घूसखोर नेताओं-अफसरों को आईना दिखाती है. ग़ज़ल ने जब से आमजन की ज़ंग को नई धार देना सीखा है, यह महफ़िल से चौपाल तक और सड़क से संसद तक छा गई है. यह गाँव की धूल में फल-फूल रही है, सिनेमा के परदे पर अदाएं दिखा रही है और साहित्यिक सम्मेलनों में अपना डंका बजा रही है. ग़ज़ल की यह ताक़त मैंने भी महसूस की है. गाँव से लेकर शहर तक जो कुछ देखा और भोगा है, उसे ग़ज़ल के जरिये बयान करने का प्रयास किया है. मैं एक सामान्य किसान परिवार से जुड़ा हूँ इसलिए हर वह पीडा झेली है, जिससे इस देश का आम आदमी गुजर रहा है. जीवन के इस महायुद्ध में परिस्थितियों का हर प्रहार मुझसे पहले मेरी अर्धांगिनी गीता ने झेला. यदि वह साथ न होतीं तो मैं चूर-चूर हो गया होता. आमजन की अपार पीडा को अगर मैं कुछ शब्द दे सका तो अपना प्रयास सार्थक समझूंगा. एक बात और। मेरी अधिकतर रचनाएँ हिंदुस्तान दैनिक और युग तेवर में प्रकाशित हो चुकी हैं लेकिन मैं मानता हूँ कि यह ब्लॉग इन्हें सुधी पाठकों तक पहुंचाने का सर्वश्रेष्ठ मंच है।
-वीरेंद्र वत्स
टिप्पणियाँ