महादेवी वर्मा से वीरेंद्र वत्स की ख़ास बातचीत (धरोहर)


 
महादेवी वर्मा के साथ नेपाल के कवि गुलाब खेतान और वीरेन्द्र वत्स (दाहिने)
                                         


 

महादेवी वर्मा का यह इंटरव्‍यू मैंने उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों में लिया था.यह गुरुवार 27 अगस्‍त सौर 11 भाद्रपद 2044 को दैनिक 'आज' के  साप्ताहिक परिशिष्ट ‘मध्‍यान्‍तरी’ में प्रकाशित हुआ। इस महान विचार-दर्शन को ऐतिहासिक दस्‍तावेज मानते हुए इसे बिना किसी काट-छांट के प्रस्तुत कर रहा हूँ.
महादेवी वर्मा का जीवन ममत्‍व एवं करुणा का असीम अगाध समुद्र है। हिंदी साहित्‍य के उत्‍कर्ष का युग उनमें पुंजीभूत है। उनका काव्‍य साध्‍य के प्रति साधक की अंतर्वृत्तियों का अनुभूतिपरक प्राणवान चित्र है। परमात्‍मा उनके रचना धर्म का केन्‍द्रीय तत्‍व है। यह आध्‍यात्मिक दृष्टिकोण उनकी लय-भाव बिम्बित मनोरम वाणी के अनुकूल है। परमतत्‍व विश्‍व के परे होकर भी विश्‍व के कण कण में व्‍याप्‍त है। संसार के लिए समर्पित प्रेमभाव उसके लिए है और उसके प्रति अभिव्‍यक्‍त आसक्ति विश्‍व के लिए। कवयित्री के लिए उसका काव्‍य परमसत्‍ता के प्रति पावन प्रणय निवेदन है। यह जीवात्‍मा का परमात्‍मा के लिए अनन्‍य समर्पण भाव है। परन्‍तु जब यही काव्‍य साधारणीकृत हो जनमानस की धरोहर बन जाता है, तब हर हृदय अपने लौकिक अलौकिक मन्‍तव्‍य के लिए उसे प्रयुक्‍त करने में स्‍वतंत्र है।
कविता से महादेवी जी का लगाव बचपन से था। उनका भोला भावुक मन काव्‍य के क्षेत्र को ही अपनी प्रकृति के अनुकूल पा सका। मां की धर्मपरायणता, वैदिक ऋचाओं की रहस्‍यवादिता तथा गांधी जी के त्‍याग -तपोमय जीवन मूल्‍यों ने मिलकर उनके काव्‍य संस्‍कारों का निर्माण किया। उनके काव्‍य संग्रह नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्‍यगीत और दीपशिखा उनकी काव्‍य यात्रा के क्रमिक सोपान हैं।
पीड़ा से महादेवी जी की घनिष्‍ठता है। उन्‍हीं के शब्‍दों में, 'दुख मेरे निकट जीवन का एक ऐसा काव्‍य है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बांध रखने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्‍य सुख हमें चाहे मनुष्‍यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सकें, किन्‍तु हमारा एक बूंद आंसू भी जीवन को अधिक उर्वर बनाए बिना गिर नहीं सकता.... विश्‍व जीवन में अपने जीवन को, विश्‍व वेदना में अपनी वेदना को इस प्रकार मिला देना, जिस प्रकार एक-एक जल बिन्‍दु समुद्र में मिल जाता है, कवि का मोक्ष है।
विचारों के आदान-प्रदान से लगा कि वे साहित्‍य और समाज की वर्तमान परिस्थितियों से अत्‍यंत क्षुब्‍ध हैं। उनका मानना था कि आज देश के सामने सबसे बड़ा संकट चरित्र का है। यहां प्रस्‍तुत है, महादेवी से बातचीत के अंश-


प्रश्न-छायावाद के बाद हिन्‍दी का कविता का उत्‍कर्ष हुआ है अथवा अपकर्ष. यह एक विवादास्‍पद प्रश्‍न है, इस संदर्भ में हम आपके विचार जानना चाहेंगे.

उत्तर-छायावाद हिन्‍दी कविता का स्‍वर्ण युग था। उसका युग भारतराष्‍ट्र का एक ऐसा जागरण युग था, जिसमें सभी क्षेत्रों में अलोक पर्वत का उद्वेलन देखा जा सकता है। केवल साहित्‍य को ही देखें तो कथा युग जासूसी तिलिस्‍म के कुहासे से निकलकर सामान्‍य जीवन में उतर आया। आलोचना में नवीनता आई तथा साहित्‍य की सब विधाओं ने जन्‍म और विकास पाया। राजनीति में गांधीजी के अवतरण के साथ ज्‍योतिष्‍कों ने आलोक फैलाया। केवल शास्‍त्रों में बंदी सत्‍य अहिंसा जैसे जीवन मूल्‍यों ने मानव में ऐसा जीवन्‍त अवतार लिया, जिसने प्रत्‍येक पराधीन देश को मु‍क्ति का संदेश दिया है। जीवन के शाश्‍वत सौन्‍दर्य तथा कला का आविर्भाव कविता में हुआ। उसकी उज्ज्वल पृष्ठिभूमि को नकारकर उसे आज के ह्रासयुग से जोड़ना मेरे विचार से अनुचित होगा। छायावाद की कविता उस युग के उज्ज्वल इतिहास का उज्ज्वलतम पृष्‍ठ है। आज सब क्षेत्रों में ह्रास है। हमारी राजनीति में, चरित्र में, आदर्श में सब ओर जो स्थिति है, कवि में भी वही प्रतिबिम्बित है। परन्‍तु उसमें जागृति पहले आना अनिवार्य है, उसी प्रकार जैसे प्रभात के धुंधले प्रहर में सबसे प्रथम पक्षी ही प्रभात के सन्निकट होने का संदेश देता है। अभी कविता तत्‍कालीन अपकर्ष में व्‍यक्‍त हो रही है। जैसे सब क्षेत्रों में आदर्श टूट रहे हैं, उसी प्रकार वह भी अपनी श्रेष्‍ठता प्रमाणित करने के लिए अतीत मूर्तिभंजक हो रही है।


प्रश्न-आपकी साहित्‍य साधना सिद्धि को प्राप्‍त कर चुकी है. क्‍या अभी कुछ मन्‍तव्‍य अवशेष है?

उत्तर- साहित्‍य साधना में सिद्धि की स्थिति नहीं है। वह तो निरंतर गति का पर्याय है और नए तट बनाने वाली नदी के समान है। अभी देश को तथा जीवन को सुन्‍दर बनाने का मन्‍तव्‍य है। वह कब सम्‍पूर्णता को प्राप्‍त होगा, कहना कठिन होगा।


प्रश्न-कलागत सौन्‍दर्य और मानव मूल्‍यों के प्रति उदासीन वर्तमान कविता क्‍या समाज को कोई रचनात्‍मक दिशा प्रदान कर सकेगी?

उत्तर-कविता कोई विधि-निषेध नहीं देती। वह न कानून बना सकती है न उसके अनुसार दण्‍ड या पुरस्‍कार देने में समर्थ है। वह केवल मन की ऋतु का परिवर्तन कर सकती है और यह कार्य संवेदनशीलता जगाने से ही संभव है। अत: मेरे विचार में जब तक आज का कवि जीवन की विरूपता और दयनीयता के ही चित्र अंकित करता रहेगा तब तक न उसकी यथास्थिति में परिवर्तन होगा, न ही पाठक के मन में जीवन के सौन्‍दर्य को प्राप्‍त करने की तीव्र इच्‍छा जागेगी। भाव की चरम सीमा ही कर्म को अनिवार्य कर सकती है। मानव मूल्‍य आस्‍था से बनते हैं और कलागत सौन्‍दर्य परम्‍परागत भावानुभूति से रूपात्‍मकता पाता है। आज की कविता रोगी का विलाप है। उससे स्‍वस्‍थ जीवन की प्रेरणा नहीं जागती।


प्रश्न-चरित्र का संकट आज हमारे देश का सबसे बड़ा संकट है. अन्‍य सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक समस्‍याएं इसी के कारण उत्‍पन्‍न हुई हैं. ऐसी परिस्थिति में एक श्रेष्‍ठ रचनाकार के क्‍या कर्तव्‍य होने चाहिए?

उत्तर- चरित्र एक ऐसी जीवन पद्धति है, जिसका निर्माण जीवन मूल्‍यों में आस्‍था से अन्‍तर्जगत में तथा सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक आदि के सामंजस्यपूर्ण विकास से बाह्य जगत में होता है। साहित्‍य में अन्‍तर्जगत तथा बाह्य जगत की विशेषताएं एकात्‍मता पाकर जिस सौन्‍दर्य का सृजन करती हैं, वह सर्वकालीन हो जाता है। जीवन मूल्‍य एक कालखंड में नहीं बनते। उनके बनने में पीढ़ियों तथा युगों का अनुभव उपकरण रूप में लगता है। न सत्‍य एक युग का निर्माण है, न अहिंसा अपरिग्रह आदि। आज का श्रेष्‍ठ रचनाकार अपनी रचना द्वारा ही स्थिति में परिवर्तन ला सकता है। परन्‍तु उसके लिए उसकी रचना को मानव संवेदना तथा चेतना में एक उद्वेलन उठाना होगा। सौन्‍दर्य के साथ रखी विरूपता सौन्‍दर्य के लिए मानव चेतना को विकल बना सकती है, यह मनौवैज्ञानिक सत्‍य है।


प्रश्न- आपके गीतों की तीव्र आध्‍यात्मिक अनुभूति पर कुछ आलोचक लौकिकता का आरोप लगाते हैं। इस तरह के आरोपों के विषय में आपकी क्‍या अवधारणा है?

उत्तर-
गीत रचना में तीव्रतम अनुभूति के कुछ क्षणों की सृष्टि होती है, जिसके अन्‍तर्गत दर्शन, भावना, सौन्‍दर्य, कल्‍पना आदि कुछ गिने-चुने शब्‍दशिल्‍प में एकत्र हो सकते हैं। हमारी समस्‍त मध्‍ययुगीन साधना ही गीतमय है। वैदिक युग के छन्‍द गीत ही हैं। मानव की चेतना गेय शब्‍दों में जो तन्‍मयता पाती है वह अन्‍यत्र दुर्लभ है। मेरे गीत लौकिक प्रतीकों में भी व्‍यक्‍त होने पर लक्ष्य में अलौकिक हैं। लौकिकता का आरोप करने वाले सूफियों तथा निर्गुणवादियों की रचनाओं को भूल जाते हैं। भाषा मनुष्‍य का सृजन है। अत: उसके प्रतीक सब प्रकार की अनुभूतियों को समेटे रहेंगे। कबीर जब अपने आप को ‘राम की बहुरिया’ कहते हैं तो क्‍या उनके तत्‍व को समझने में हमें कठिनाई होती है। सगुणोपासकों के गीत स्‍पष्‍ट रूपात्‍मक हैं, परन्‍तु निर्गुण साधना में ऐसी रचना लौकिक प्रतीकों में ही व्‍यक्‍त होगी, रहस्‍यवाद पर मेरे निबन्‍ध मन्‍तव्‍य को स्‍पष्‍ट कर देते हैं। परन्‍तु जो समझना नहीं चाहता उसे कौन समझा सकता है।


प्रश्न-नई कविता की गूढ़ गद्यात्‍मकता से उबे हुए अधिकांश कवि नवगीत, अनुगीत और हिन्‍दी ग़ज़ल के माध्‍यम से पुन: लयबद्धता की ओर उन्‍मुख हो रहे हैं। क्‍या यह प्रवृत्ति हिन्‍दी कविता में भावात्‍मक परिवर्तन ला सकेगी?

उत्तर- साहित्‍य की सब विधाओं में कविता ही अनेक आन्‍दोलनों की आंधी सह सकी है। छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अकविता, गद्यात्‍मक कविता आदि से प्रत्‍येक साहित्‍य का विद्यार्थी परिचित है। वस्‍तुत: यह कविता की शक्ति का ही प्रमाण है। कविता का लयात्‍मक होना उसकी प्रेषणीयता को सहज तथा पाठक या श्रोता को तन्‍मय कर सकता है। गद्यात्‍मक कविता के असफल होने पर अब पुन: लयात्‍मकता की ओर कवि का आकर्षण होना स्‍वाभाविक था। नवगीत, ग़ज़ल आदि में कविता पुन: नए रूप में अवतरित हो रही है। अभी नए कवि की स्थिति उस पक्षिशावक के समान है, जिसके कुछ पंख निकल आए हों और वह उड़ने के प्रयत्‍न में उड़ता-गिरता हो। जब सब पंख निकल आएंगे तब वह मुक्‍त आकाश के प्रत्‍येक कोने को स्‍पर्श कर सकेगा। अभी कथ्‍य, भाषा, शिल्‍प सब बनने के क्रम में हैं। जीवन की विषम परिस्थितियां भी उसे मुक्‍त नहीं होने देतीं। परन्‍तु भारत की भारती पराजित नहीं हो सकती। मैं तो आशान्वित हूं।



महादेवी सामान्य बातचीत के दौरान भी अत्यंत गुरु-गंभीर विषयों पर बड़ी सहजता से टिप्पणी करती थीं. मुझसे बात करते हुए उन्होंने जो कुछ कहा था, उसकी एक बानगी यहाँ देखें-
‘...जीवन की विसंगतियों से सब हार मान बैठे हैं, जबकि एक नन्‍हा सा दीपक घनघोर अंधकार से पराजय नहीं स्‍वीकार करता। लगता है, जिसमें महान व्‍यक्ति ढलते थे, भगवान के घर का वह सांचा ही टूट गया। आज सब बौने हो गए हैं। अभी कुछ समय पूर्व हमारे देश में एक साथ कितने महान लोग पैदा हुए साहित्‍य में और राजनीति में भी। बापू, सुभाष, नेहरू, गुरुदेव, दद्दा, प्रसाद, निराला इत्‍यादि को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। अब तो ऐसे दिन आ गए हैं कि हर आदमी रो रहा है। हम भी रोए थे लेकिन दूसरों के लिए। आंसुओं में भी शक्ति होती है। जल से भरा हुआ बादल ही वज्रपात करता है। बिना तपे कोई महान नहीं बन सकता। नदियां इतना मीठा जल सागर में उड़ेलती हैं लेकिन वह खारा ही बना रहता है। जब सूर्य की गरमी से तपकर वह भाप के रूप में परिवर्तित हो जाता है तो शीतल होकर अपने आप मधुर बन जाता है...’
 

-वीरेंद्र वत्स की प्रस्तुति.

टिप्पणियाँ

Satya Vyas ने कहा…
yeh post nih sandeh hi ek archive hai vats ji. ise hamare samakch lane ke liye koti koti abhinanadan sweekaren.

satya vyas
Unknown ने कहा…
sabhi rachnaye...kamaal hai...
umda lekhan ke liye badhai..
Ajay Pratap ने कहा…
sachmuch ye ek alaukik dharohar hai.
aviral anand ने कहा…
GYANVARDHAK PRAWAHMEY AUR ROCHAK HAI

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