संदेश

तू जीत के लिए बना

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  प्रचंड अग्निज्वाल हो अपार शैलमाल हो तू डर नहीं सिहर नहीं तू राह में ठहर नहीं ललाट यह रहे तना तू जीत के लिए बना तू जोश से भुजा चढ़ा तू होश से कदम बढ़ा गगन-गगन में गांव हो शिखर-शिखर पे पांव हो तू आँधियों से खेल कर तू बिजलियों से मेल कर तू कालचक्र तोड़ दे तू रुख समय का मोड़ दे अजेय क्रांतिवीर तू अजेय शान्तिवीर तू  -वीरेन्द्र वत्स

सौ दिये जलाता है

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 रेशमी घटाओं में चाँद मुस्कराता है नर्म-नर्म ख्वाबों को नींद से जगाता है चांदनी संवरती है आसमां के आँगन में सर्द झील का पानी आईना दिखाता है मनचली हवाओं से पूछता है सन्नाटा कौन आज जंगल में बांसुरी बजाता है शोख़ रातरानी यूं झूमती है शाखों में जैसे कोई दिलवर को बांह में झुलाता है थोड़ी-थोड़ी मदहोशी थोड़ी-थोड़ी बेताबी रंग तेरी चाहत के दिल मेरा सजाता है यूं मना रहा कोई आसमां में दीवाली इक दिया बुझाता है सौ दिये जलाता है वीरेन्द्र वत्स

इश्क साया है

...इश्क साया है आदमी के लिए दिल लगाना न दिल्लगी के के लिए, ये इबादत है ज़िन्दगी के लिए. इश्क दाना है, इश्क पानी है, इश्क साया है आदमी के लिए. ये किसी एक का नहीं यारो, ये इनायत है हर किसी के लिए. मेरा हर लफ्ज़ है अमन के लिए, मेरी हर साँस बंदगी के लिए, मैं हवा के खिलाफ चलता हूँ, सिर्फ इंसान की खुशी के लिए. वीरेन्द्र वत्स

राजा का सपना

किसान जैसे अपने खेतों की फसल काटता है उसी तरह नेता वोटों की फसल काटता है, वह जनता को अपनी जागीर समझता है. चुनावी मौसम में एक नेता की तैयारी देखिये- राजा के सीने में उठता ज्वार- बुआई कर ली हमने सही समय पर! बाँट दिए सब खेत, मेड़ पर मिट्टी डाली. सारी-सारी रात चलाकर लिप्सा का हल बँटे हुए खेतों में की भरपूर जुताई फिर बोए विष बीज घृणा-कुंठा-नफरत के. बीज उगे, बढ़ चले खिलीं राजा की बांछें जोड़-तोड़ की कुटिल साधना सफल हो गई! नफ़रत की चिनगारी भड़की और अचानक फैल गई सारी बस्ती में धू-धू कर जल उठे खेत-खलिहान-गाँव-घर. राजा का सपना है सबकुछ स्वाहा होले राज चले बेरोक-टोक, निर्विघ्न-निरंकुश.

वीरेन्द्र वत्स के दोहे

झूठे झगड़े छोड़कर, चलो बढाएं ज्ञान। मुसलमान गीता पढ़े, हिन्दू पढ़े कुरान॥ इतना प्यारा देश है इतने प्यारे लोग। इसे कहाँ से लग गया बँटवारे का रोग॥ जाति-धर्म भाषा-दिशा प्रांतवाद की मार। टुकड़ा-टुकड़ा देश है, कौन लगाये पार॥ कोई भूखा मर रहा कोई काटे माल। लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल॥ अरबों के मालिक हुए कल तक थे दरवेश। नेता दोनों हाथ से लूट रहे हैं देश॥ बारी-बारी लुट रही जनता है मजबूर। नेता हैं गोरी यहाँ, नेता हैं तैमूर॥ पटा लिया परधान को, दिए करारे नोट। पन्नी बांटी गाँव में पलट गए सब वोट॥ ( युग तेवर में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स  

मैं भारतीय

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 मैं धधकती आग हूँ मैं बरसता राग हूँ ध्वंस हूँ निर्माण हूँ मैं प्रेम हूँ बैराग हूँ मैं मधुर मधुमास हूँ धड़कनों की आस हूँ जो हृदय की पीर हर ले वह अटल विश्वास हूँ मैं बिरह की बात हूँ मैं मिलन की रात हूँ स्वप्न को जो सच बना दे मैं वही सौगात हूँ मैं धरा की आन हूँ ज्ञान हूँ विज्ञान हूँ विश्व का कल्याण जिसमें वह सतत संधान हूँ भारती का लाल हूँ मित्रता की ढाल हूँ विकट हूँ विकराल हूँ मैं शत्रुओं का काल हूँ  -वीरेन्द्र वत्स

जिंदगी के आईने में अक्स अपना देखिए

जिंदगी के आईने में अक्स अपना देखिए/ उम्र के सैलाब का चढ़ना-उतरना देखिए/ बालपन का वो मचलना, वो छिटकना गोद से/ हर अदा पे माँ की आँखों का चमकना देखिए/ वो जवानी की मोहब्बत, वो पढ़ाई का बुखार/ ख्वाहिशों का ख्वाहिशों के साथ लड़ना देखिए/ मंज़िलों की खोज में लुटता रहा जी का सुकून/ इक मुक़म्मल शख्स का तिल-तिल बिखरना देखिए/       अब बुढ़ापा ले रहा है जिंदगी भर का हिसाब/ वक़्त का चुपचाप मुट्ठी से सरकना देखिए/ -वीरेन्द्र वत्स