ये क्या दयार ...

इस ग़ज़ल का एक खास मकसद है। विकास की अंधी दौड़ में आदमी हवा, पानी और मिट्टी को लगातार प्रदूषित कर रहा है। यही हालत रही तो आने वाले ५० सालों में यह धरती रहने लायक नहीं रह जायेगी। भलाई इसी में है कि हम समय रहते चेत जाएँ.


ये क्या दयार जहाँ फूल है न खुशबू है
कदम-कदम पे फ़कत पत्थरों का जादू है

भरा है काला धुआं आसमान की हद तक
अजीब खौफे क़यामत जहाँ में हर सू है

ये आदमी की तरक्की की इंतिहा तो नहीं
जमीं बदलने लगी बार-बार पहलू है

हम तुम्हारे हैं गुनहगार ऐ नई नस्लो
नहीं जुनूने तबाही पे ख़ुद का काबू है
( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित )

वीरेंद्र वत्स

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