सौ दिये जलाता है
रेशमी घटाओं में चाँद मुस्कराता है
नर्म-नर्म ख्वाबों को नींद से जगाता है
चांदनी संवरती है आसमां के आँगन में
सर्द झील का पानी आईना दिखाता है
मनचली हवाओं से पूछता है सन्नाटा
कौन आज जंगल में बांसुरी बजाता है
शोख़ रातरानी यूं झूमती है शाखों में
जैसे कोई दिलवर को बांह में झुलाता है
थोड़ी-थोड़ी मदहोशी थोड़ी-थोड़ी बेताबी
रंग तेरी चाहत के दिल मेरा सजाता है
यूं मना रहा कोई आसमां में दीवाली
इक दिया बुझाता है सौ दिये जलाता है
वीरेन्द्र वत्स
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