...नए रास्ते निकलते हैं
कड़ी हो धूप तो खिल जायें गुलमोहर की तरह
सियाह रात में घुल जायें हम सहर की तरह
जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर
उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह
कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं
न घर में बैठिए बेकार-बेखबर की तरह
वो रास्ता ही सही मायने में मंजिल है
जहाँ रकीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह
( दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित )
-वीरेन्द्र वत्स
सियाह रात में घुल जायें हम सहर की तरह
जो एक बात घुमड़ती रही घटा बनकर
उसे उतार दें धरती पे समन्दर की तरह
कदम बढ़ें तो नये रास्ते निकलते हैं
न घर में बैठिए बेकार-बेखबर की तरह
वो रास्ता ही सही मायने में मंजिल है
जहाँ रकीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह
( दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित )
-वीरेन्द्र वत्स
टिप्पणियाँ
जहाँ रकीब भी चलते हैं हमसफ़र की तरह
वह वत्स जी वाह ...
इसे कहते हैं शायरी ... बहुत उम्दा सोच, और उससे भी बेहतर प्रस्तुतीकरण है आपका |
वाकई दिल जीत लिया आपने ...|
कड़ी हो धूप तो खिल जायें गुलमोहर की तरह
सियाह रात में घुल जायें हम सहर की तरह
वाह जी वाह.......वाह वाह वाह ..............बहुत प्रेरणात्मक।
Virendra JI ... ye kavita aap k dimag me kaise aayi?