खुद पे इतना भी एतबार नहीं...

आप कुछ यूं उदास होते हैं
रेत में कश्तियाँ डुबोते हैं

खुद पे इतना भी एतबार नहीं
गैर की गलतियाँ संजोते हैं

लोग क्यूं आरजू में जन्नत की
जिंदगी का सुकून खोते हैं

जब से मज़हब में आ गए कांटे
हम मोहब्बत के फूल बोते हैं

बज्म के कहकहे बताते हैं
आप तन्हाइयों में रोते हैं
(युग तेवर में प्रकाशित)

-वीरेन्द्र वत्स

टिप्पणियाँ

Mithilesh dubey ने कहा…
बहुत खुब। लाजवाब रचना के लिए बधाई

जब से मज़हब में आ गए कांटे
हम मोहब्बत के फूल बोते हैं....
बेहतरीन नज्म ...
आप की गज़लों में एक नया मिजाज़ है | जो नए माहौल को बखूबी बयां करता है | आप नवाबों के शहर में हैं और शायरी तो वहां की जान है | इसलिए उम्मीद है की आगे भी उम्दा रचनाएँ पढने को मिलेंगी | मैंने भी चार साल गुजारे हैं लखनऊ में और उसी की देन है कि कुछ टूटी फूटी शायरी करने लगा हूँ |
बढ़िया रचना , पढ़कर अच्छा लगा | हार्दिक बधाई |
बेहतरीन नज्म ...
आप की गज़लों में एक नया मिजाज़ है | जो नए माहौल को बखूबी बयां करता है | आप नवाबों के शहर में हैं और शायरी तो वहां की जान है | इसलिए उम्मीद है की आगे भी उम्दा रचनाएँ पढने को मिलेंगी | मैंने भी चार साल गुजारे हैं लखनऊ में और उसी की देन है कि कुछ टूटी फूटी शायरी करने लगा हूँ |
बढ़िया रचना , पढ़कर अच्छा लगा | हार्दिक बधाई |

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