अथ श्री राजा- रानी कथा
भौतिक सुख-सुविधाएँ जुटाने और भोगने की आपाधापी में मानवीय रिश्ते पीछे छूटते जा रहे हैं. एक-दूसरे पर शक गहरा हो चला है और दाम्पत्य बंधन भी आहत हो रहे हैं. इसी सच्चाई से परदा उठाती है यह कविता- राजा के घर चौका-बर्तन करती फूलकुमारी, छह सौ की तनख्वाह महीना, बची-खुची त्योहारी. फुर्तीली हिरनौटी जैसी पल भर में आ जाती, हँसते-गाते राजमहल के सभी काम निबटाती. श्रम का तेज पसीना बनकर तन से छलक रहा है, हर उभार यौवन का झीने पट से झलक रहा है. बीच-बीच में राजा से बख्शीश आदि पा जाती, जोड़-तोड़कर जैसे-तैसे घर का खर्च चलाती. बूढा बाप दमा का मारा खाँस रहा है घर में, घर क्या है खोता चिड़िया का बदल गया छप्पर में. रानी जगमग ज्योति-पुंज सी अपना रूप सँवारे, चले गगन में और धरा पर कभी न पाँव उतारे. नारीवादी कार्यक्रमों में यदा-कदा जाती है, जोशीले भाषण देकर सम्मान खूब पाती है. सोना-चाँदी हीरा-मोती साड़ी भव्य-सजीली, रंग और रोगन से जी भर सजती रंग-रँगीली. यह सिंगार भी राजा की आँखों को बाँध न पाता, मन का चोर मुआ निष्ठा को यहाँ-वहाँ भरमाता. राजा ने जब फूलकुमारी की तनख्वाह बढ़ाई, मालिक की करतू...