संदेश

अगस्त, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

...एतबार कौन करे

सुबह से शाम तलक इंतज़ार कौन करे तुम्हारे वादे पे अब एतबार कौन करे सियासी रंग में ढलने लगी मोहब्बत भी फिर ऐसी शै पे दिलो-जाँ निसार कौन करे जिसे तलाश हमारी उसे तलाश करें बड़ों के साथ बड़ा कारबार कौन करे सजा किये की अभी तक भुगत रहे हैं हम पुरानी भूल भला बार-बार कौन करे वो रहनुमा है उसे हक है जालसाजी का जो जल रहे हैं उन्हें शर्मसार कौन करे (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

आप बस आप...

आप बस आप खबर आपकी हजारों को आपने दी है जबां बेजबां नज़ारों को शोख परदे में कभी और कभी बेपरदा कौन समझाए हमें इन जवां इशारों को आपके गाँव में जलते हैं सभी इन्सां से हाँ सजाते हैं दिलो-जान से मजारों को बेवजह गैर से इन्साफ किसलिए मांगें जबकि उठना है जहाँ से वफ़ा के मारों को चमन में आज भड़कते हैं हर तरफ शोले क्या बचायेगा कोई आग से बहारों को (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

कोई तो बात उठे...

रुला- रुला के गए दोस्त हँसाने वाले लगा के आग गए आग बुझाने वाले थी आरजू कि कभी हम भी पार उतरेंगे डुबो के नाव गए पार लगाने वाले खुलेगा राज भला किस तरह से कातिल का पड़े सुकूं से सभी जान गंवाने वाले कोई तो बात उठे दूर तलक जो जाए यहाँ जमा हैं फ़क़त शोर मचाने वाले (हिन्दुस्तान दैनिक में प्रकाशित) -वीरेन्द्र वत्स

महादेवी वर्मा से वीरेंद्र वत्स की ख़ास बातचीत (धरोहर)

चित्र
  महादेवी वर्मा के साथ नेपाल के कवि गुलाब खेतान और वीरेन्द्र वत्स (दाहिने)                                             महादेवी वर्मा का यह इंटरव्‍यू मैंने उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों में लिया था.यह गुरुवार 27 अगस्‍त सौर 11 भाद्रपद 2044 को दैनिक 'आज' के  साप्ताहिक परिशिष्ट ‘मध्‍यान्‍तरी’ में प्रकाशित हुआ। इस महान विचार-दर्शन को ऐतिहासिक दस्‍तावेज मानते हुए इसे बिना किसी काट-छांट के प्रस्तुत कर रहा हूँ. महादेवी वर्मा का जीवन ममत्‍व एवं करुणा का असीम अगाध समुद्र है। हिंदी साहित्‍य के उत्‍कर्ष का युग उनमें पुंजीभूत है। उनका काव्‍य साध्‍य के प्रति साधक की अंतर्वृत्तियों का अनुभूतिपरक प्राणवान चित्र है। परमात्‍मा उनके रचना धर्म का केन्‍द्रीय तत्‍व है। यह आध्‍यात्मिक दृष्टिकोण उनकी लय-भाव बिम्बित मनोरम वाणी के अनुकूल है। परमतत्‍व विश्‍व के परे होकर भी विश्‍व के कण कण में व्‍याप्‍त है। संसार के लिए समर्पित प्रेमभाव उसके लिए है और उसके प्रति अभिव्‍यक्‍त आसक्ति विश्‍व के लिए। कवयित्री के लिए उसका काव्‍य परमसत्‍ता के प्रति पावन प्रणय निवेदन है। यह जीवात्‍मा का परमात्‍मा के लिए

ये क्या दयार ...

इस ग़ज़ल का एक खास मकसद है। विकास की अंधी दौड़ में आदमी हवा, पानी और मिट्टी को लगातार प्रदूषित कर रहा है। यही हालत रही तो आने वाले ५० सालों में यह धरती रहने लायक नहीं रह जायेगी। भलाई इसी में है कि हम समय रहते चेत जाएँ. ये क्या दयार जहाँ फूल है न खुशबू है कदम-कदम पे फ़कत पत्थरों का जादू है भरा है काला धुआं आसमान की हद तक अजीब खौफे क़यामत जहाँ में हर सू है ये आदमी की तरक्की की इंतिहा तो नहीं जमीं बदलने लगी बार-बार पहलू है हम तुम्हारे हैं गुनहगार ऐ नई नस्लो नहीं जुनूने तबाही पे ख़ुद का काबू है ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) वीरेंद्र वत्स

अपनी बात

समय इतनी तीव्र गति से बदल रहा है की जरा सा चूकने का मतलब है पिछड़ जाना। ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने घर में सिमट कर सिर्फ़ कविता लिखते रहें और बाहरी दुनिया से कोई वास्ता न रखें। दुनिया से जुड़ना है तो यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया चाहती क्या है। हमें अपने लेखन और दुनिया की अपेक्षाओं में समन्वय कायम करना होगा। हम लोगों पर सिर्फ़ अपने विचार थोप कर ज्यादा दूर तक नहीं चल सकते। व्यवस्था इतनी विराट हो गई है कि इससे बाहर रहकर इसे बदलना असंभव है। व्यवस्था के भीतर घुस कर ही इसमें बदलाव के उपाय करने होंगे। आज कविता के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि वह जनमानस से कट गई है। विविध आन्दोलनों कि आंधी में कविता उस मकाम पर पहुँच गई है जहाँ उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में चुटकुलेबाजों और गवैयों कि बन आई है. कविता के महारथी अपने आन्दोलन पर आत्ममुग्ध हैं. चुटकुलेबाज-गवैये दुनिया के सामने कवि विरादरी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. लोकप्रियता को सिर-आँखों पर बिठाने वाले अतिसक्रिय मीडिया के इस युग में वास्तविक कविता को नए सिरे से लोकप्रिय बनाना एक बड़ी चुनौती है. कवियों, साहित्यकारों व समीक्षकों को आत

तुझे लोग गुनगुनाएँगे

किसी किताब में सिमटी हुई ग़ज़ल की तरह न घर में बैठ तुझे लोग गुनगुनाएँगे तू इन्कलाब है किस्मत संवार सकती है ये जंगबाज तेरी पालकी उठाएंगे ये तेरी उम्र, तेरा जोश, ये तेरे तेवर बुझे दिलों में नया जलजला जगाएंगे फटी जमीन तो शोले उठेंगे सागर से कहाँ तलक वो तेरा हौसला दबायेंगे झुका-झुका के कमर तोड़ दी गई जिनकी वो आज मिलके ज़माने का सर झुकायेंगे ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) -वीरेंद्र वत्स

...वहां प्यार की बस्ती थी

जहाँ राख का ढेर लगा है वहां प्यार की बस्ती थी यहाँ बसी थी खुशी ईद की, यहाँ फाग की मस्ती थी सबके घर में अमन-चैन था, सबके थे परिवार सुखी सबके अपने तौर-तरीके, सबकी अपनी हस्ती थी नफरत भरी पड़ी एक दिन ज्वाला बनकर टूट पड़ी इंसानों की जान चुनावी राजनीति से सस्ती थी अपनी सत्ता अपनी कुर्सी अपने रुतबे की खातिर वोटर को ही मार दिया, यह कैसी वोटपरस्ती थी अबकी गाँव गया तो मैंने यह अजीब मंज़र देखा नेता जीता मगर वोटरों की आंखों में पस्ती थी कितने कुनबे और जलेंगे, कितने सपने होंगे खाक यही गिनाने को शायद चैनल की आँख तरसती थी ( हिंदुस्तान दैनिक लखनऊ में प्रकाशित ) -वीरेन्द्र वत्स

वीरेन्द्र वत्स के दोहे

झूठे झगड़े छोड़कर, चलो बढाएं ज्ञान। मुसलमान गीता पढ़े, हिन्दू पढ़े कुरान॥ इतना प्यारा देश है इतने प्यारे लोग। इसे कहाँ से लग गया बँटवारे का रोग॥ जाति-धर्म भाषा-दिशा प्रांतवाद की मार। टुकड़ा-टुकड़ा देश है, कौन लगाये पार॥ कोई भूखा मर रहा कोई काटे माल। लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल॥ अरबों के मालिक हुए कल तक थे दरवेश। नेता दोनों हाथ से लूट रहे हैं देश॥ बारी-बारी लुट रही जनता है मजबूर। नेता हैं गोरी यहाँ, नेता हैं तैमूर॥ पटा लिया परधान को, दिए करारे नोट। पन्नी बांटी गाँव में पलट गए सब वोट॥ ( युग तेवर में प्रकाशित )